कहत कबीर ०१

दोस पराए देख करि, चलत हसन्त हसन्त । // दीन, गरीबी, बंदगी, सब सों आदर भाव ।

कबीरदास जी संत कहे जाते हैं, पर इनके विचारों और रचनाओं का क्षेत्र केवल धर्म, अध्यात्म, चिंतन और भजन नहीं है। उन्होंने सांसारिक जीवन — व्यक्ति के चरित्र और व्यवहार; समाज की प्रचलित प्रथाओं, व्यवहारों और अंधविश्वासों; समाज में फैले ऊँच-नीच के भाव; जाति प्रथा की बुराइयों; सभी धर्म-संप्रदायों के व्यवहार में आए हुए अंधविश्वासों तथा पाखण्डों आदि — पर भी गहरा विचार किया है और अपनी रचनाओं में उन पर करारी टिप्पणियाँ भी की हैं। उनके मत में ये वे बुराइयाँ हैं जो समाज की सुख-शांति, सेहत और ख़ुशहाली के रास्ते में बाधा पैदा करती हैं कबीरदास जी के दोहों तथा अन्य रचनाओं को सही सही समझ पाने के लिए हमें इन सभी बातों को ध्यान में रखना चाहिए।

— कुसुम बांठिया

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दोस पराए देख करि, चलत हसन्त हसन्त ।
अपने याद न आवई, जा को आदि न अन्त ।।

इस दोहे में कबीर मानव चरित्र की एक बहुत ही आम कमज़ोरी पर टिप्पणी कर रहे हैं। उनका कहना है कि व्यक्ति को दूसरों की बुराइयाँ (और कमज़ोरियाँ) तुरंत नज़र आ जाती हैं और वह उनकी खिल्ली उड़ाता रहता है। लेकिन ख़ुद अपने दोषों की ओर उसका ध्यान जाता ही नहीं।वह अपने आपको पहचानने की कोशिश करेगा तो पाएगा कि इन दोषों की संख्या इतनी अधिक है कि उनकी गणना हो ही नहीं सकती।
कबीर का आशय है कि दोष सभी इंसानों में होते हैं। मनुष्य अगर दूसरों के दोषों के स्थान पर अपने दोषों को पहचानने और उनके सुधार पर ध्यान दे तो उसका अपना चरित्र तो निर्मल होगा ही, समाज का वातावरण भी सुधरेगा।

दीन, गरीबी, बंदगी, सब सों आदर भाव
कहै कबीर सोई बड़ा, जामे बड़ा स्वभाव

इस दोहे में कबीरदास जी का आशय है कि कोई भी व्यक्ति धन या सत्ता से सम्पन्न होने से ही बड़ा नहीं हो जाता। सच्चा बड़प्पन मनुष्य के स्वभाव में निहित होता है। जिस व्यक्ति में अहंकार का भाव न हो, जो दीन-हीन और ग़रीब लोगों को अपने से छोटा न मानता हो, उनसे भी समानता और सम्मान से पेश आता हो , वही व्यक्ति वास्तव में बड़ा कहलाने योग्य है।
इस दोहे में भी कबीर व्यक्ति को अपने चरित्र को आदर्श बनाने की प्रेरणा और समाज में समानता का संदेश दे रहे हैं। वे दिखला रहे हैं कि ऊँच-नीच के बोध और अहंकार के भाव को दूर रखने पर ही समाज में शांति और सौमनस्य रह सकता है।

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